हिंदू परंपरा में दान-पुण्य को सदियों से बेहद महत्वपूर्ण माना गया है। मान्यता है कि सही भाव से किया गया दान भगवान की कृपा दिलाता है और जीवन के कष्टों को कम करता है। इसी विषय पर एक भक्त ने वृंदावन के विख्यात संत प्रेमानंद महाराज से सवाल किया कि अगर कोई साधु-संत या व्यक्ति घर पर भिक्षा मांगने आए और हम दान न दें, तो क्या वह श्राप दे सकता है?
महाराज ने बड़े सरल शब्दों में उत्तर दिया कि यदि सच में किसी के पास श्राप देने की शक्ति होती, तो वह दर-दर क्यों घूमता? उन्होंने कहा कि जो साधु पैसे की मांग करते हैं, वे वास्तविक साधु नहीं होते बल्कि ढोंगी होते हैं। सच्चा संत किसी का बुरा नहीं सोचता। यदि वह क्रोधित भी हो जाए तो उसका क्रोध भी अंततः कल्याणकारी ही होता है। जैसे नारद जी द्वारा नलकूबर और मणिग्रीव को दिया गया श्राप अंततः उनके उद्धार का कारण बना।
महाराज ने यह भी बताया कि दान हमेशा योग्य व्यक्ति को ही देना चाहिए। कुपात्र को दिया गया दान किसी काम का नहीं होता। वास्तविक संत वही होते हैं जो भक्ति और साधना के मार्ग पर समर्पित जीवन जीते हैं। शास्त्रों में भिक्षावृत्ति का उद्देश्य साधकों के अहंकार का नाश माना गया है। सादगी से जीवन बिताने वाले संत कुछ घरों से थोड़ी-सी रोटी लेकर ही अपना दिनभर का भोजन जुटा लेते हैं।


